गांधी इरविन समझौता क्या था? What is Gandhi Irwin Pact in Hindi?

गांधी इरविन समझौता क्या था? What is Gandhi Irwin Pact in Hindi?

भारत की स्वतंत्रता के लिए पूरे भारत में कई तरह के आंदोलन चलाए जा रहे थे। सन 1919 से 1947 के मध्य हुए आंदोलनों को भारत के राष्ट्रीय आंदोलन का गांधीवादी चरण कहा जाता है क्योंकि इस समय भारत में चलाये जाने वाले सभी आंदोलनों का शीर्ष नेतृत्व गांधी जी द्वारा किया गया था। सन 1915 में महात्मा गांधी जी जब अपनी वकालत की शिक्षा पूरी करके भारत वापस आए तो उन्होंने 1916 में अहमदाबाद के निकट साबरमती आश्रम की स्थापना की।

गांधी इरविन समझौता क्या था? What is Gandhi Irwin Pact in Hindi?

इसके बाद महात्मा गांधी जी ने उदारवादी नेता गोपाल कृष्ण गोखले को अपना राजनीतिक गुरु मानते हुए भारत में हो रहे वैधानिक आंदोलनों का समर्थन किया। महात्मा गांधी जी ने समाज के निम्न वर्ग जैसे कि किसान, मजदूर, दलित तथा मुस्लिमों को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जोड़ने के लिए उनके द्वारा चलाये जा रहे आंदोलनों का भी समर्थन किया।

सन 1917 में महात्मा गांधी ने सर्वप्रथम बिहार के चंपारण में तिनकठिया पद्धति, जिसके अंतर्गत किसानों को अपने खेत के कुछ भाग पर नील की खेती करना अनिवार्य था, को समाप्त करने के लिए आंदोलन किया।

यह आंदोलन गांधी जी का पहला राजनैतिक आंदोलन था। इसके बाद महात्मा गांधी जी द्वारा गुजरात के खेड़ा नामक समुद्र तट पर अंग्रेजों द्वारा लगाए गए नमक कर के विरोध में आंदोलन प्रारंभ किया। जिसके बाद ब्रिटिश सरकार को  नमक पर लगाए गए कर को कम करना पड़ा।

इस तरह समाज के निम्न वर्ग के लोगों के आंदोलनों का समर्थन करके महात्मा गांधी जी भारतीयों के दिलों में अपनी जगह बना कर भारतीय राजनीति के प्रमुख नेताओं में शुमार हो गए। कुछ विद्वानों का ऐसा मानना है कि खेड़ा सत्याग्रह ने ही गांधी इरविन समझौते की मुख्य पृष्ठभूमि तैयार की थी।

रॉलेक्ट एक्ट, जलियांवाला बाग कांड आदि के विरोध में सितंबर 1920 में लाला लाजपत राय की अध्यक्षता में कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन का आयोजन किया गया जिसमें महात्मा गांधी जी ने असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव प्रस्तुत किया।

इस प्रस्ताव को कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में पारित कर दिया गया। असहयोग आंदोलन के दौरान विदेशी वस्तुओं तथा कपड़ों, सरकारी शिक्षण संस्थानों तथा नौकरियों न्यायालयों तथा सरकारी उपाधियों का बहिष्कार किया गया। इस आंदोलन को सफल बनाने के लिए लोगों से स्वदेशी वस्तुओं के उत्पादन एवं उपयोग, स्वदेशी शिक्षा तथा पंचायत व्यवस्था का समर्थन करने की अपील की गई।

सन 1922 को गोरखपुर में चौरीचौरा कांड से प्रभावित होकर महात्मा गांधी जी ने इस आंदोलन को स्थगित कर दिया। गांधी जी द्वारा इस आंदोलन को स्थगित करने का विरोध पंडित जवाहरलाल नेहरू तथा सुभाष चंद्र बोस जैसे नेताओं के द्वारा किया गया।  इसके बाद सन 1929 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन का आयोजन किया गया।

इस अधिवेशन की अध्यक्षता पंडित जवाहरलाल नेहरू ने की। कांग्रेस के इस अधिवेशन में पूर्ण स्वराज के प्रस्ताव को पारित किया गया तथा साथ ही साथ असहयोग आंदोलन को नए नाम से प्रारंभ करने का भी प्रस्ताव किया गया।

कांग्रेस के इस अधिवेशन में असहयोग आंदोलन को अब एक नए नाम, ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन‘ के नाम से प्रारंभ करने का अधिकार कांग्रेस की कार्य समिति को दिया गया। लेकिन फरवरी 1930 में अहमदाबाद के साबरमती आश्रम में कांग्रेस की कार्यसमिति ने सविनय अवज्ञा आंदोलन प्रारंभ करने का अधिकार महात्मा गांधी जी को दे दिया।

महात्मा गांधी जी ने 12 मार्च 1930 को सविनय अवज्ञा आंदोलन का आरंभ, साबरमती आश्रम से 300 किलोमीटर की दूरी 24 दिनों में तय करके गुजरात के दांडी तट पर नमक बनाकर, ‘नमक कानून’ को तोड़कर किया।

इसके साथ ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ में फिर से असहयोग आंदोलन की ही तरह भू-राजस्व तथा अन्य करों को ब्रिटिश सरकार को नहीं देने का फैसला किया गया। इसके साथ ही विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करना तथा उसको नष्ट भी किया जाने लगा।

इस आंदोलन के समर्थन में लोगों ने सरकारी सेवाओं के साथ ही न्यायालयों का भी बहिष्कार कर दिया। सरकारी फैक्ट्रियों के मजदूरों ने भी हड़ताल और प्रदर्शन शुरू कर दिया। वहीं दूसरी तरफ महिलाओं ने भी इस आंदोलन के समर्थन में शराब की दुकानों पर धरना प्रदर्शन करना शुरू कर दिया था।

जिससे ब्रिटिश सरकार को राजस्व में घाटा होने लगा। वहीं भारत के उत्तर पश्चिमी प्रांत में भी इस आंदोलन को खान अब्दुल गफ्फार खान ने खुदाई खिदमतगार नामक संगठन बनाकर समर्थन दिया।

सविनय अवज्ञा आंदोलन को रोकने के लिए ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस के प्रमुख नेताओं जिनमें महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरु,  राजेंद्र प्रसाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल एवं अबुल कलाम आजाद आदि थे, को गिरफ्तार कर लिया। इन सभी बड़े नेताओं की गिरफ्तारी के बाद इस आंदोलन का नेतृत्व अब्बास तैयब जी ने किया।

अब ब्रिटिश सरकार को यह पता चल चुका था कि भारत मे चल रहे इन आंदोलनों को केवल महात्मा गांधी जी ही रोक सकते है। इसलिए भारत मे चल रहे इस आंदोलन को रोकने के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा लंदन में प्रथम गोलमेज सम्मेलन का आयोजन किया गया।

जिसमें भारत के विभिन्न दलों के 89 प्रतिनिधियों ने भाग लिया परंतु कांग्रेस के किसी भी सदस्य ने इस गोलमेज सम्मेलन में भाग नहीं लिया। जिसके कारण यह गोलमेज सम्मेलन असफल रहा।

इस गोलमेज सम्मेलन की असफलता के बाद ब्रिटिश सरकार यह जान चुकी थी कि अगर इस सम्मेलन को सफल बनाना है तथा भारत में चल रहे सविनय अवज्ञा आंदोलन को रोकना है तो किसी न किसी तरह से कांग्रेस को इस सम्मेलन में शामिल करना पड़ेगा।

क्योंकि महात्मा गांधी उस समय कांग्रेस के प्रमुख एवं लोकप्रिय नेताओं में से एक थे। उस समय कांग्रेस का प्रतिनिधित्व कर रहे थे इसीलिए भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन ने ब्रिटिश सरकार की सलाह से तेज बहादुर सप्रू की मध्यस्थता में महात्मा गांधी से समझौते की पेशकश की।

इस समझौते में यह निर्णय लिया गया कि भारत में चल रहे सविनय अवज्ञा आंदोलन को स्थगित कर दिया जाएगा तथा कांग्रेस द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेगी। और इसके साथ ही ब्रिटिश सरकार भारत में नमक कर को समाप्त कर देगी तथा सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान गिरफ्तार किए गए राजनैतिक कैदियों को रिहा कर दिया जाएगा।

इस समझौते को दिल्ली पैक्ट के नाम से भी जाना जाता है। इस समझौते का सुभाष चंद्र बोस तथा जवाहरलाल नेहरू जैसे युवा नेताओं ने विरोध किया था। मार्च 1931 में सरदार वल्लभ भाई पटेल की अध्यक्षता में आयोजित कांग्रेस के कराची अधिवेशन में गांधी इरविन समझौते को स्वीकार कर लिया गया।

जिसके बाद कांग्रेस का प्रतिनिधित्व करते हुए महात्मा गांधी जी ने द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया था।  परंतु इस सम्मेलन के दौरान मोहम्मद अली जिन्ना व डॉ अंबेडकर ने सांप्रदायिक व वर्ग हित की मांग कि जिसके कारण महात्मा गांधी ने इस सम्मेलन का विरोध किया।

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